—जाहिद खान—
बीबीसी के ‘स्टोरीविले: इंडियाज डॉटर’ नाम के वृत्तचित्र पर आज पूरे देश में बवाल मचा हुआ है। इस पूरे मामले में हमारी सरकार, पुलिस, मीडिया और अदालत एक साथ सक्रिय हो गई हैं। वृत्तचित्र के कुछ चुनिंदा हिस्से सार्वजनिक होने पर संसद में भी हंगामा हुआ। हालांकि इस मामले में संसद भी दो हिस्सों में बंटी रही। सरकार और आधे सांसद ये मानते हैं कि वृत्तचित्र भारत की प्रतिष्ठा पर आघात लगाने की कोशिश है। ब्रिटिश फिल्म निर्माता ने इस वृत्तचित्र में निर्भया कांड के दोषी का पक्ष इस तरह से रखा है कि मानो वह बेकसूर हो। वृत्तचित्र से बलात्कार जैसे घृणित अपराध को बढ़ावा मिलेगा, लिहाजा इसके प्रसारण पर पाबंदी लगाई जाए। यहां तक कि कुछ सांसदों ने इस संवेदनशील मसले पर भी सियासत करने की गुंजाइश निकाल ली और इसे केन्द्र की तत्कालीन संप्रग सरकार से जोड़ दिया। उनका कहना था कि बलात्कारी से इंटरव्यू लेने की अनुमति सरकारी आदेश से हुई है और इस बात की ‘व्यापक’ जांच होनी चाहिए। जांच के बाद जो भी दोषी निकले, उस पर सरकार कार्रवाई करे। एक तरफ वृत्तचित्र के खिलाफ यह विरोधी आवाजें है, जो इसे देखे बिना फिल्म पर पाबंदी लगाने के हक में हैं, तो दूसरी तरफ देश में एक ऐसा भी बड़ा तबका है, जो इस पूरी कवायद को बेफिजूल मानता है। इस तबके का मानना है वृत्तचित्र, बलात्कार को जायज नहीं ठहराता बल्कि अपराधी और दीगर लोगों की वास्तविक मानसिकता को उजागर करता है। फिल्म में कुछ भी आपतिजनक नहीं है।
जब इस मामले में ज्यादा हंगामा बढ़ा, तो संसद में गृह मंत्री ने घटना की जांच और दोषियों के खिलाफ कार्रवाई का आश्वासन देने के साथ वृत्तचित्र का प्रसारण न होने का भी भरोसा दिलाया। सरकार ने इस संदर्भ में कड़ा रूख अपनाते हुए टीवी चैनलों को यह सलाह दी कि वे इस वृत्तचित्र को ना दिखाएं। साक्षात्कार का प्रसारण प्रोग्रामिंग कोड का उल्लंघन माना जाएगा। यह बात अलग है कि सरकार की तमाम ‘कोशिशें’ इस वृत्तचित्र के प्रसारण पर रोक नहीं लगा पाईं। बैन होने के बावजूद डाॅक्युमेंट्री यू-ट्यूब पर आ गई, जिसे दुनिया भर में लाखों लोगों ने देखा। यही नहीं बीबीसी, जो इस डाॅक्युमेंट्री का प्रसारण अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस यानी 8 मार्च को करने वाला था, उसने विवाद को बढ़ता देख इसे 4 मार्च को ही प्रसारित कर दिया। बहरहाल इस मामले में आरोप-प्रत्यारोप जारी हैं। डाॅक्युमेंट्री के पक्ष और विपक्ष में तमाम दलीलें दी जा रही हैं। इन सबके बीच असल मुद्दा जो कि बलात्कार की पाश्विक समस्या है, उसे हमारे समाज में किस तरह से रोका जाए ? इस पर कोई सार्थक बात नहीं हो रही है।
गौरतलब है कि वृत्तचित्र ‘स्टोरीविले: इंडियाज डॉटर’ सोलह दिसंबर, 2012 की रात को दिल्ली में एक मेडिकल छात्रा से चलती बस में हुए बलात्कार और हत्या की बर्बर घटना पर केन्द्रित है। फिल्म में पीडि़ता के परिवार के सदस्यों, बलात्कारियों और बचाव पक्ष के वकीलों की विस्तृत फुटेज, और साक्षात्कारों को शामिल किया गया है। वृत्तचित्र का मकसद बलात्कार जैसे घृणित अपराध और अपराधियों की मानसिकता को लोगों के सामने लाना है। डाॅक्युमेंट्री की फिल्मकार लेस्ली उडविन अपने इस मकसद में कामयाब भी हुई हैं। डाॅक्युमेंट्री में निर्भया कांड के एक गुनहगार ने बड़े ही बेशर्मी से बलात्कार के लिए लड़कियों को ही दोषी ठहराया है। साक्षात्कार के दौरान उसने कहा, वे रात में क्यों निकलती हैं ? ऐसे-वैसे कपड़े क्यों पहनती हैं ? यानी इस वीभत्स घटना को हुए इतने दिन बीत गए, लेकिन अपराधी को अपने किए का जरा सा भी अफसोस नहीं। उलटे वह लड़कियों को ही बलात्कार के लिए दोषी ठहरा रहा है। यहां तक कि अपराधियों के वकील ने भी महिलाओं के खिलाफ ऐसी ही अपमानजनक टिप्पणियां की हैं।
निर्भया गैंगरेप के दोषियों का इंटरव्यू पर आज भले ही बवाल मच रहा हो, अदालत ने भी चाहे इस पर सवाल उठाए हों, लेकिन आज से तीन दशक पहले सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसे ही एक दुष्कर्म और हत्या के मिलते-जुलते मामले में, अपराध के दोषियों रंगा-बिल्ला का प्रेस को इंटरव्यू करने की इजाजत दे दी थी। जबकि मौत की सजा पाए इन दोनों दोषियों की दया याचिका राष्ट्रपति तक ठुकरा चुके थे। रंगा-बिल्ला के इंटरव्यू की यह इजाजत, कोर्ट ने प्रेस को इंटरव्यू पर रोक संबंधी कोई स्पष्ट नियम न होने की वजह से दी थी। तत्कालीन मुख्स न्यायाधीश वाईवी चंद्रचूड़, एपी सेन और बहारुल इस्लाम की संयुक्त पीठ ने उस वक्त अपने फैसले में कहा था कि जेल मैन्युअल के नियम 549 (4) के तहत कहा गया है कि मौत की सजा पाया दोषी अपने परिजनों, रिश्तेदारों, मित्रों और कानूनी सलाहकार से मिल सकता है। इस नियम में पत्रकारों को शामिल नहीं किया गया है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि उन्हें बिना किसी ठोस कारण के इंटरव्यू से वंचित किया जा सकता है। यदि इसकी मनाही होती है तो अधीक्षक को उसके लिखित कारण देने होंगे। बहरहाल ‘इंडियाज डॉटर’ वृत्तचित्र के लिए बीबीसी ने जब उस शख्स का इंटरव्यू लिया था, तब सामूहिक बलात्कार और हत्या के इस मामले में अदालत का फैसला नहीं आया था। उसके बाद सर्वोच्च न्यायालय इस मामले से जुड़े सभी वयस्क आरोपियों को मौत की सजा सुना चुका है। लिहाजा इस पर कोई भी विवाद बेफिजूल है। इन सब विवादों में पड़ने की बजाय सरकार की कोशिश यह होनी चाहिए कि कैसे बलात्कार जैसे घृणित अपराध को काबू में लाया जाए।
महिलाओं के खिलाफ लगातार हो रही यौन हिंसा ने हमारी सरकार, समाज और पुलिस के सामने एक चुनौती पेश की है कि वे कैसे इन अपराधों से निपटे ? 16 दिसम्बर, 2012 की घटना के बाद, सरकार द्वारा यौन हिंसा संबंधी कानूनों को और सख्त करने के बाद उम्मीद बंधी थी कि देश में इस तरह की वहशियाना हरकतों पर लगाम लगेगी, लेकिन यह कानून आज भी अपराधियों में खौफ पैदा नहीं कर पा रहे हैं। शायद ही कोई ऐसा दिन जाता है, जब देश में किसी महिला के साथ इस तरह की ज्यादती की खबर ना आती हो। मीडिया में पुराने मामले पर चर्चा खत्म नहीं होती, कि नया मामला सामने आ जाता है। राजधानी दिल्ली की ही यदि बात करें, तो यहां स्थिति में सुधार के तमाम वादों के बावजूद महिलाओं के खिलाफ अपराध में दोगुनी बढ़ोतरी दर्ज हुई है। यहां हर चार घंटे में एक बलात्कार होता है। दिन-पे-दिन बलात्कार के बढ़ते आंकड़े हमारी सुरक्षा-व्यवस्था और कानूनी उपायों को आईना दिखाते हैं। सिर्फ सख्त कानून बनाने से ही यौन अपराध नहीं रुक जाएंगे, बल्कि इसके लिए लोगों की सोच में भी बदलाव लाने की जरूरत है। औरतों के खिलाफ सारे यौन अपराध एवं हिंसा हमारी सोच से जुड़ी हुई है। जब तक हम इस दिशा में ठीक ढंग से काम नहीं करेंगे, परिस्थितियों में जरा सा भी बदलाव नहीं आएगा।
जिन लोगों ने भी ‘स्टोरीविले: इंडियाज डॉटर’ वृत्तचित्र देखा है, वह इस बात को अच्छी तरह से समझ सकते हैं कि इंटरव्यू के दौरान अगर इतनी जघन्यतम हिंसा को अंजाम देने वाले के चेहरे पर शिकन तक नहीं है, तो इससे कहीं न कहीं यह भी संदेश जाता है कि फांसी जैसी सजा भी शायद औरतों के खिलाफ हिंसा रोकने के लिए पर्याप्त नहीं है। डॉक्यमेंट्री से लोगों को मालूम चला कि बलात्कारी किस तरह से सोचते हैं। निर्भया कांड का दोषी ढाई साल से जेल में है, लेकिन इतने साल में भी उसे यह समझ नहीं आया कि उसने कुछ गलत किया है। वह डाॅक्युमेंट्री में नसीहत दे रहा है कि लड़कियों को रात में नहीं निकलना चाहिए या कैसे लिबास पहनने चाहिए। सच बात तो यह है कि यह सोच, निर्भया बलात्कार कांड के अकेले उस मुजरिम की नहीं है, बल्कि हमारे समाज में आज भी ऐसे हजारों-हजार बीमार मानसिकता के लोग हैं, जो ठीक इसी तरह से सोचते हैं। डाॅक्युमेंट्री कहीं न कहीं बलात्कार के मामले में पुरुषों के दृष्टिकोण को भी परिलक्षित करती है।
एक वृत्तचित्र पर पाबंदी लगा देने भर से महिलाओं के बारे में पुरुषों की राय नहीं बदल जाएगी। वृत्तचित्र पर पाबंदी लगाकर कहीं ऐसा तो नहीं, हम सच्चाई से मुंह चुराना चाहते हैं ? हमें इस संवेदनशील मुद्दे का मजबूती से सामना करना चाहिए। हम इसे माने या ना माने, महिलाओं के बारे में आम पुरुषों की यही मानसिकता है। जातीय खाप पंचायतों से लेकर संसद में बैठे हमारे कई ‘सम्मानित’ नेता भी महिलाओं के बारे में ऐसा ही सोचते हैं। खाप पंचायत और ये नेता महिलाओं के बारे में जब-तब तरह-तरह के फरमान जारी करते रहते हैं। मसलन लड़कियां मोबाइल फोन ना रखें, वे जींस नहीं पहने, रात में घर से बाहर ना निकलें, लड़कों से दोस्ती ना रखें। ऐसे में, वृत्तचित्र का प्रसारण रोकने से भी कहीं ज्यादा जरूरी है कि समाज की सोच और मानसिकता कैसे बदली जाए ? सरकार इस दिशा में गंभीरता से सोचे-विचारे। महिला सुरक्षा के मामले में सरकार ने कई कदम उठाए हैं, पर यह प्रयास अभी भी नाकाफी हैं। ‘निर्भया’ के नाम पर सरकार ने महिलाओं की सुरक्षा के लिए एक कोष जरूर बनाया, लेकिन विडंबना की बात है कि इस कोष में से अभी तलक एक रुपया भी खर्च नहीं किया गया है। महज जज्बाती भाषणों और कुछ घोषणाओं से समाज में महिलाओं की स्थिति में तब्दीली नहीं आएगी। उनके खिलाफ यौन हिंसा और अपराध नहीं रुकेंगे। इसके लिए सरकार और समाज दोनों को विस्तृत प्रयास करने होंगे। तभी जाकर महिलाएं समाज में अपने आप को सुरक्षित महसूस करेंगी।
Leave a Reply