—कृष्ण प्रताप सिंह—
लगता है, यह नरसंहारों के अभियुक्तों के बरी होने का ‘मौसम’ है। देश अभी बिहार के बथानीटोला और शंकरबिगहा नरसंहारों के अभियुक्तों का बरी होना भूल नहीं पाया था कि उत्तर प्रदेश में मेरठ के हाशिमपुरा मुहल्ले में 28 साल पहले 22 मई, 1987 को हुए और प्रदेश की सशस्त्र पुलिस यानी पीएसी की वरदी पर चस्पां नरसंहार के सभी 16 अभियुक्त बरी कर दिये गये। दिल्ली के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश संजय जिन्दल ने अपने फैसले में कहा कि अभियोजन पक्ष उनकी पहचान साबित करने में विफल रहा। हम सभी जानते हैं कि अभियोजन की यह विफलता आमतौर पर मामलों की जांच करने और सबूत जुटाने वाली एजेंसियों की काहिली की उपज होती है। इससे जन्मने वाले संदेह का लाभ हमेशा अभियुक्तों के पक्ष में जाता है क्योंकि अदालतों में इंसाफ की अभी तक की सर्वमान्य कसौटी है कि भले ही सौ अपराधी छूट जायें, एक भी निर्दोष को सजा नहीं होनी चाहिए।
ये पंक्तियां लिखने तक साफ नहीं है कि उत्तर प्रदेश सरकार अदालत के फैसले के खिलाफ अपील करेगी और लचर विवेचना के लिए जिम्मेदार सरकारी अमले पर कोई कार्रवाई करेगी या नहीं। इसलिए अंदेशे प्रबल हैं कि जैसे बथानीटोला और शंकरबिगहा के संदर्भ में हमें नहीं मालूम कि उनमें जो लाशें गिरीं, वे बरी किये गये अभियुक्तों ने नहीं तो किसने गिरायीं, हम कभी न जान सकें कि मेरठ में दंगे भड़कने के बाद उसके हाशिमपुरा मुहल्ले के उक्त 42 अल्पसंख्यकों को एक मस्जिद के सामने से ट्रकों में भर ले जाने वाले प्रदेश सशस्त्र पुलिस यानी पीएसी के जवानों ने नहीं तो किसने मारा? ट्रक से उतारकर गोलियां मारने के बाद उनमें से कुछ को गंगनहर में तो कुछ को हिंडन नदी में फेंक दिया गया था, जिनमें 19 की ही लाशें मिल पायी थीं! हत्यारों के दुर्भाग्य से अन्य पांच लोग गोलियां खाकर भी उनके किये का भांडा फोड़ने के लिए जिन्दा बच गये थे। अलबत्ता, वे अदालत में दिये बयान में भी अपनी इस बेबसी से नहीं उबर पाये कि रात के गहरे अंधेरे में हेल्मेट पहने हत्यारे वरदीधारियों का चेहरा उनकी निगाहों में पूरी तरह नहीं समा पाया।
बथानीटोला और शंकरबिगहा नरसंहारों के अभियुक्त एक समय बिहार में खूनखराबे का इतिहास बनाने में खासा नाम कमा चुकी निजी सेनाओं के सदस्य थे और उनका मारे गये लोगों की सुुरक्षा से निकट या दूर का कोई लेना-देना नहीं था, जबकि हाशिमपुरा के अभियुक्त वे पीएसी जवान थे, जिन्हें नागरिकों के जान-माल की हिफाजत के लिए वहां तैनात किया गया था और उनका कुसूर साबित हो पाता तो इस अर्थ में बहुत बड़ा होता कि उन्हें जिनका रक्षक होना चाहिए था, जुनून में उन्हीं के भक्षक बन बैठे थे। अब इस सवाल पर जायें कि ऐसा क्यों नहीं हो सका और पीडि़तों के 28 साल लम्बे इंतजार के बाद एक अदद फैसला आया भी तो वह उनके लिए ‘देर भी और अंधेर भी’ क्यों सिद्ध हुआ, तो हमारे वर्गविभाजित सामाजिक-सांस्कृतिक ताने बाने व सत्तातंत्र के लिए खासे असुविधाजनक अनेक सवालों से सामना होता है।
बथानीटोला और शंकरबिगहा में जान गंवाने वाले ज्यादातर लोग आदिवासी व दलित तबके के थे जबकि हाशिमपुरा में अल्पसंख्यक। कहने की आवश्यकता नहीं कि देश में लोकतंत्र के तमाम तामझाम के बावजूद अभी इन तबकों को पूरा सामाजिक न्याय नहीं मिल सका है और सामंती मूल्यों के बने रहने के चलते उनके खिलाफ होने वाले सामान्य अपराधों की जांच में भी पुलिस का रवैया गैरजिम्मेदारी व संवेदनहीनता का ही नमूना होता है। इससे उनमें रोष भी व्यापता है, क्षोभ भी और असुरक्षा भी। हाशिमपुरा के फैसले के बाद डर है कि ये तीनों बढ़कर उन्हें हमारे लोकतंत्र या कि राज्य और उसकी शक्ति में गहरे अविश्वास तक पहुंचा दें। अगर हमारा लोकतंत्र, जिसे हम कानूनोें का शासन कहते हैं, उनके जान व माल की सुरक्षा की संवैधानिक गारंटी को व्यर्थ कर डालने वाले ऐसे जघन्य संहारों के अभियुक्तों को भी सजा के अंजाम तक नहीं पहुंचा सकता तो इसकी शर्म को किसी स्तर पर तो महसूस किया जाना चाहिए क्योंकि अपराधियों को सजा दिलाने का काम अंततः राज्य का ही है।
यकीनन, राज्य ठान ले तो उसके लिए इस सवाल का जवाब ढूढ़ना कतई कठिन नहीं कि नरसंहार के इस लगभग खुले हुए मामले में जांच एजेंसी सीबीसीआईडी को आरोप पत्र दाखिल करने में नौ साल क्यों लग गये और सर्वोच्च न्यायालय ने मारे गये लोगों के परिजनों की अर्जी पर मामले को गाजियाबाद के चीफ जुडिशियल मजिस्ट्रेट की अदालत से दिल्ली के उक्त तीस हजारी कोर्ट में स्थानांतरित कर दिया तो भी सबूत एमत्र करने में इतनी रुचि क्यों नहीं दिखाई गई कि अभियुक्तों के बचने के सारे रास्ते बन्द हो जायें? क्यों सीबीसीआईडी ने अभियुक्तों की शिनाख्त तक नहीं करवाई?
भूतपूर्व आईपीएस अधिकारी विभूतिनारायण राय इस नरसंहार के समय गाजियाबाद के पुलिस प्रमुख थे और घटनास्थल उनके क्षेत्राधिकार में आता था। वे साफ कहते हैं कि शुरू से ही जानबूझकर तफ्तीश को गलत दिशा में ले जाया गया ताकि नरसंहार से जुड़ी प्रशासन व पीएसी की ‘बड़ी मछलियों’ को बचाया जा सके! उनकी मानें तो तफ्तीश को गलत दिशा देने में कई राजनीतिक नेताओं ने भी बड़ी गर्हित भूमिका निभाई। ऐसा है तो यह अत्यंत गम्भीर रूप से चिन्त्य है। बथानी टोला, शंकरबिगहा और हाशिमपुरा के फैसलों को मिलाकर देखें तो जब ये आये हैं, बिहार और उत्तर प्रदेश दोनों में खुद को दलितों, वंचितों व अल्पसंख्यकों की हमदर्द व सामाजिक न्याय की अलम्बरदार कहने वाली सरकारंे हैं। अगर उनके रहते भी यह सुनिश्चित नहीं किया जा सकता कि जांच व अभियोजन एजेंसियां कम से कम ऐसे गम्भीर मामलों में कर्तव्यनिर्वहन में कोताही न करे तो उनका सामाजिक न्याय इन तबकों के लिए सामाजिक अन्याय से अलग कैसे हुआ?
इस सबको लेकर देश के मीडिया और सिविल सोसायटी की चुप्पी भी कुछ कम सवाल खड़ेे नहीं करती। राजनीति को दिल्ली: 1984 और गुजरात: 2002 को लेकर गोटंे बिछाने व लाल करने से ही फुरसत नहीं रहती, तो सिविल सोसाइटी जेसिकालाल मर्डर केस जैसे अपनी पसंद के चुने हुए मामलों में ही ‘वी वांट जस्टिस’ के नारे लगाती है। ऐसे संहारों को लेकर वह अपने मुंह सिले ही रखती है, जिनकी पीड़ा पहले से ही तमाम पीड़ाओं से बेचैन तबके झेल रहे हों। इसे लेकर वह न राज्य को कठघरे में खड़ा करती है, न उसके तंत्र को। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के शब्दों में खुद से पूछती नहीं कि अगर किसी के घर के एक कमरे में आग लगी हो तो क्या वह दूसरे कमरे में चैन से सो सकता है? मीडिया भी रस्मी चर्चाओं के बाद इस सवाल से जूझने की जरूरत नहीं समझ रहा कि कमजोर तबकों को न्याय दिलाने में हो रहे ऐसे अन्यायों को आज नहीं रोका गया तो हमारा कल कितना बेचैन होगा?
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