——राजेश रंजन——-
अगर हम मिनिस्ट्री आॅफ ट्राईबल अफेयर भारत सरकार (मोटा) के द्वारा समय-समय पर जारी रिपोर्ट अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत् वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम-2006 एवं नियम-2007 के तहत् क्रियान्वयन की स्थिति छत्तीसगढ़ के संदर्भ में देखें तो आंकड़े की स्थिति बहुत ही अच्छी दिखाई पड़ती है। परन्तु आंकड़े की भीतर व आंकड़ों की आगे की सच्चाई पर गौर करें तो पता चलेगा की स्थिति बिल्कुल विपरीत है।
फरवरी-2015 तक का वनाधिकार कानून का स्टेट्स रिपोर्ट के अनुसार राज्य में 8,17,809 आवेदन प्राप्त किये गये, जिसमें से 97,40ः आवेदनों का निपटारा हो चुका है, बताया गया है। आंकड़ों से लगता है कि बहुत ज्यादा ही अच्छा क्रियान्वयन हुआ है। शायद यही कारण है कि हाल ही में भारत सरकार के आदिवासी मंत्रालय के सचिव ने 09 राज्यों के मुख्य सचिवों को वनाधिकार कानून का शीघ क्रियान्वयन करने के लिए फटकार लगाते हुए कड़ा पत्र लिखा, उन 09 राज्यों के लिस्ट में छ.ग. का नाम नहीं है।
इसका अब क्या अर्थ निकाला जाए ? यह कि अब आदिवासी एवं अन्य परम्परागत् वनाश्रित समूदायों, समूहों के ऊपर जिस ऐतिहासिक अन्याय का होना बताया गया था अब खत्म हो चुका है। क्या उन सभी पात्र लोगों को न्याय मिल गया जो इस कानून के तहत् अधिकार पाने का हक रखते हैं ? तो इसका उत्तर है बड़ा सा ना…!!! अगर हम आंकड़ों के अन्दर व संबंधित अन्य पहलूओं को देखें तो कई जिले, ब्लाॅक अनुसूचित क्षेत्र में आते हैं, इसके अलावा अन्य परम्परागत् वन निवासी (गैर-आदिवासी) की निर्भरता वन पर पूर्व में रही है व वर्तमान में आज भी है। ऐसे में अब तक केवल 3,36,590 लोगों को निजी अधिकार पत्र दिया गया, और तो और लोगों ने औसतन पाँच एकड़ काबिज जमीन पर पट्टे की मांग की थी पर उसमें भी कटौती कर डेढ़ एकड़ औसतन जमीन दिया गया।
काफी लोगों को कुछ डिसमिल जमीन का ही अधिकार पत्र मिला है, जबकि कानून के अनुसार 10 एकड़ तक के काबिज भूमि का अधिकार मिल सकता है। वहीं राज्य में कुल 6000 सामूदायिक वनाधिकार का आवेदन प्राप्त किये गये जिसमें से केवल 1000 का अधिकार पत्र अनेक त्रुटियों के साथ दिया गया। जिसे वे सामूदायिक अधिकार बता रहें हैं, दरअसल वह सेक्सन 3(2) के अन्तर्गत डेवलपमेन्ट राईट (शासकीय निर्माण) कार्याें के लिए दिया गया है। इसके अलावा कुछ सामूदायिक वनाधिकार पत्र वन विभाग के नियंत्रण में “वन सुरक्षा समितियों’’ को एक हिसाब से हस्तांतरण किया गया है जो कानून का उल्लंघन हैै और वहां आदिवासियों और वनाश्रितों को किसी भी प्रकार का वन के प्रबंधन का अधिकार नहीं है।“ वहीं सही मायने में दिये जाने वाले सामूदायिक वनाधिकार पत्र आजीविका की निर्भरता, धार्मिक, सांस्कृतिक व विभिन्न कई तरह के परम्परागत् अधिकारों को संरक्षण देती है। सेक्शन 3(1) में सेंध लगाकर कई अधिकारों में कटौती कर कई बंदिशों के साथ अधिकार पत्र दिया गया, जिसका अधिक कोई मायने नहीं है। 97.40ः मामलों का निपटारा जानकर बड़ा ही संतुष्टिजनक क्रियान्वयन होने की अनुभूति होती है। एहसास होता है कि चलो सभी को लगभग अधिकार तो मिल ही चुका है। जबकि 55% आवेदनों को निरस्त कर निपटा दिया गया, यह भी एक सच्चाई है। जिनका आवेदन निरस्त किया गया उनमें से अधिकत्तर लोगों को सूचित ही नहीं किया गया ताकि वे अपील नहीं कर सकें। लगभग साढ़े 15 लाख के आसपास निजी हक का अधिकार रखने वाले लोगों की संख्या है, ऐसे में बाकी लगभग आधे लोग क्यों आवेदन नहीं कर पाए ? सवाल उठता है।
यह कानून इसलिये लाया गया था ताकि वनों पर परम्परागत् रूप से आजीविका चलाने वालों के ऊपर जो हमेशा अनिश्चिता, असुरक्षा बनी रहती थी, वह खत्म हो सके। जीवन गुजारने के कोई अन्य विकल्प नहीं होने की वजह से वे अपना पम्पम्परागत् आजीविका, संस्कृति और जीवन जंगल से रिश्ता के बिना सोच एवं गुजार नहीं पाते थे। उनके हित में कोई कानून नहीं था इसलिए वे हमेशा अतिक्रमणकारी कहलाते थे और दोषी भी। वनाश्रितों के जीवन पद्धति को सम्मान देते हुए उनकी असुरक्षा को खत्म कर उनके निर्भरता को रेगुरलाईज कर अधिकार पत्र देने के लिए कानून बनाया गया था और सदियों से इस पीड़ा में जीने वाले लोगों के प्रति संवेदना दिखाते हुए इन समुदायों के ऊपर होने वाले अत्चायार को “ऐतिहासिक अन्याय“ कहा गया था। सरकार ने दरअसल इस कानून को जमीन वितरण करने वाली स्कीम की तरह लिया है। लागू भी उसी आधार पर किया गया है। एक नकारात्मक सोच का भी बड़ा असर रहा है। कैसे हम दे दे वनाश्रितों को पूरा जंगल ? वन विभाग क्या काम करेगा ? लोग तो जंगल खत्म कर देंगे आदि जैसी भावनाओं के साथ क्रियान्वित किया गया।
आदिम जनजाति (पी.वी.टी.जी.) के लिए हेबिटाइड राईट दिया जाना था, जिसमें यह है कि समूदाय अपने धार्मिक, सांस्कृतिक एवं आजीविका के लिए स्थाई, अस्थाई रूप से विस्तृत वन क्षेत्रों में किसी भी प्रकार से निर्भर हो, तो इन समूदायों को हेबिटाड का अधिकार है। छ.ग. में बैगा, पहाड़ी, कोरबा, अबूझमाडि़या, बिरहोर, कमार 05 जनजातियां पी.वी.टी.जी. हैं, परन्तु एक भी “हेबिटाड“ का अधिकार नहीं दिया जाना बहुत ही बड़ा सवाल है। इतना ही नहीं खनिज चिन्हित क्षेत्रों, अभ्यारण्यों एवं राष्ट्रीय उद्योनों में तो बकायदा वनोपज संग्रहरण व अन्य निस्तार के लिए रोक लगा दिया गया है। और यह भी प्रचारित भी किया गया है कि इन क्षेत्रों में यह कानून लागू नहीं होगा। सदियों से प्रताडि़त किये गये लोगों के लिए “संजीवनी“ बनकर यह कानून आया तो भी यह अन्याय बदस्तूर जारी रहे, यह कैसे संभव है ? पर यह सच है कि ऐसा हो रहा है।
आवश्यकता है कानून का आदर करते हुए संबंधित तबकों को न्याय दिलाने के लिए दृढ़ संकल्पित होकर अपेक्षित परिणाम के लिए सही क्रियान्वयन करना। आवश्यकता है व्याप्त सभी व्यवस्था कर ढ़ांचागत् खामियों को शीघ्र दूर करना, भ्रांतियों पर रोक लगाना, कानून का सही प्रचार-प्रसार करना, क्रियान्वयन प्रक्रिया में जुड़े सभी अंगों को प्रशिक्षित करना व उन्हें सशक्त भी बनाना। आदिवासी विभाग जो इस क्रियान्यन प्रक्रिया का नोडल एजेन्सी है उसे सशक्त बनाना अति आवश्यक है, ताकि वह वन और राजस्व विभाग के ऊपर निर्भर न होकर स्वतंत्रतापूर्वक कार्य को अंजाम तक पहुंचा सके। मार्गदर्शन के लिए श्रोत केन्द्र भी स्थापित करने की जरूरत है। मजबूत ढांचा के बिना जवाबदेही के साथ इस कानून का क्रियान्वयन तो असंभव सा लगता है। यदि शासन, प्रशासन चाहे तो आसानी से ऐसी व्यवस्था कर वनाधिकार कानून के प्रति अपना प्रतिबद्धता और सम्मान व्यक्त कर सकती है।
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