बच्चों को मिले मातृभाषा में शिक्षा का अधिकार
- अमिताभ पाण्डेय
मानव सभ्यता के विकास में भाषा की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। भाषा केवल संवाद करने का शशक्त माध्यम नहीं है। यह मनुष्य के भावों, संवेदनाओं के प्रकटीकरण के लिए आवश्यक है। भाषा के माध्यम से हमारी परंपराओं, संस्कृति और संस्कार का भी पता चलता है। भाषा मनुष्य को सभ्य और ज्ञानवान बनाने में सहयोग करती है। सभ्य और ज्ञानवान मनुष्यों से मिलकर श्रेष्ठ राष्ट्र की रचना का सपना साकार होता है।
बेहतर देश की कल्पना को साकार करने के लिए पहले बेहतर मनुष्य होना जरूरी है। यह भाषा ही है जो अपने साथ विचार, भाव, संवेदना, संस्कार, संस्कृति का ज्ञान शिशु को प्रदान कर उसे श्रेष्ठ मनुष्य बनने की ओर अग्रसर करती है। हम जिस भाषा का उपयोग बोलने, बताने, आपसी बातचीत में करते हैं, वही भाषा बच्चे आसानी से समझ सकते हैं। इसी भाषा को बोलने में बच्चों को अधिक सुविधा होती है। ऐसी भाषा में ही बच्चे अपेक्षाकृत अधिक बेहतर तरीके से शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं।
आजादी के बाद हमारे देश के नीति निर्माताओं, शिक्षाविदों ने भाषा के महत्व को गंभीरता से समझा और विदेशी भाषा अंग्रेजी के स्थान पर शासकीय कामकाज को भी हिन्दी भाषा में महत्व दिया। हिन्दी को राजभाषा बनाये जाने की प्रक्रिया प्रारंभ की गई। वर्ष 1955 में प्रथम राजभाषा आयोग का गठन हुआ। वर्ष 1956 में इस आयोग द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट पर संसद के दोनों सदनों में विचार किया गया। इसके बाद रिपोर्ट राष्ट्रपति के पास भेज दी गई। राष्ट्रपति की अनुशंसा पर प्रथम राजभाषा आयोग की रिपोर्ट के अनुसार अनुच्छेद 343 के अधीन संसद ने राजभाषा अधिनियम 1963 बनाया। अनुुच्छेद 351 के अधीन यह स्वीकार किया गया है कि हिन्दी के विकास के लिए हार संभव प्रयास किये जायेंगे।
हिन्दी भाषा के प्रचार-प्रसार के लिए भारत सरकार और इसके अंतर्गत विभिन्न राज्यों, केन्द्र शासित प्रदेशों की सरकारें अपने-अपने स्तर पर लगातार प्रयास कर रहीं हैं। इसके बाद भी गुलामी का प्रतीक मानी जाने वाली अंग्रेजी भाषा से छुटकारा नहीं मिल पा रहा है। हालात इतने इतने चिंताजनक होते जा रहे हैं कि जो अंग्रेजी भाषा पहले उच्च अधिकारियों तक, ईसाई मिशनरी के स्कूलों तक ही सीमित थी, वह अब सरकारी स्कूलों से लेकर गांव, शहर के गली मोहल्लों तक फैले निजी स्कूलों तक जा पहुंची है।
इसका सर्वाधिक नुकसान हिन्दी के साथ ही विभिन्न राज्यों में बोली जाने वाली उन क्षेत्रीय भाषाओं को हो रहा है जिनके बोलने, बताने वाले लगातार कम हो रहे हैं। अंगेे्रजी के विस्तार ने विभिन्न राज्यों के अलग-अलग इलाकों में बोली जाने वाली स्थानीय भाषाओं, बोलियों का प्रचनल सीमित कर दिया है। हाल यह हो गया है कि हमारी स्थानीय भाषाऐँ और बोलियां हम से लगातार छूटती जा रही है। स्थानीय भाषाओं, बोलियों में जो भाव, संस्कृति और परंपरायें हैं, वे भी इसके साथ खत्म होती जा रही है।
अंग्रेजी भाषा को साजिशन पूर्व प्राथमिक और प्राथमिक शिक्षा के पाठ्यक्रमों में इस प्रकार डाल दिया गया है कि इसके कारण क्षेत्रीय भाषाएँ और बोलियां स्कूलों से बाहर हो रही है। अंग्रेजी का बढ़ता प्रचलन हिन्दी भाषा को कमजोर करने में लगा है। इसके कारण क्षेत्रीय भाषाओं, बोलियों, जनजातीय समुदाय में बोली जाने वाली भाषाओं के अस्तित्व पर ही संकट गहरा गया है। यह धीरे-धीरे खत्म होने की ओर बढ़ रही है। इनको जानने वाले लोग कम होते जा रहे हैं।
आजाद देश के अंग्रेजी बोलने वाले लोग खुद को श्रेष्ठ वर्ग का मानकर हिन्दी को निचले दर्जे का बताने का कोई मौका नहीं छोडते। अंग्रेजी बोलने वालों की यह मानसिकता हिन्दी बोलने वालों के मन में हीन भावना पैदा करने की कोशिश कर रही है।
अंग्रेजी को बचपन से बच्चों के दिमाग में घुसाने की स्वार्थपूर्ण साजिश के कारण बच्चों की परेशानी बढ़ गई है। वे अपने घरों में माता-पिता, परिवारजनों से जिस भाषा में बात करते हैं, उसी में शिक्षा ग्रहरण करना चाहते हैं। ऐसा करना आसान भी है। यह जानते हुए भी हम अपने बच्चों को पहली कक्षा में दाखिल करने के पहले से ही अंगेे्रजी भाषा के पाठ पढ़ने-पढ़ाने पर मजबूर कर रहे हैं। जो भाषा उनके लिए समझना कठिन है उसे बच्चों के मन, मस्तिष्क पर जबरन डाला जा रहा है। इस संदर्भ में अंतराष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग के उन सिद्धांतों का जिक्र करना जरूरी होगा जिसमें कहा गया है कि बच्चे को उसकी मातृभाषा में ही शिक्षा दी जाना चाहिए। यदि बच्चे को मातृभाषा में शिक्षा नही दी जाए तो यह उसके अधिकारों का हनन माना जाएगा।
यहां यह बताना जरूरी है कि जो भाषा अपने घरों में बोलते, सीखते हैं, उसमें उन्हें सीखने, समझने में ज्यादा आशानी होती है। यदि प्राथमिक स्कूलों में पढ़ाई के लिए मातृभाषा अथवा श्रेत्रीय भाषाओं, बोलियों को अनिवार्य कर दिया जाए तो इसके अवश्य ही अच्छे परिणाम देखने को मिलेंगे। बच्चे अपने परिवार में बोलने वाली भाषा का उपयोग स्कूलों में होते देखेंगे तो इससे उनकी प्रतिभा और अधिक बेहतर हो सकेगी। इसका कारण यह है कि प्राथमिक शिक्षा में स्थानीय भाषा का महत्वपूर्ण योगदान होता है। अब समय आ गया है कि बच्चों को केवल शिक्षा के अधिकार दिये जाने की बात कह कर ही अपनी जिम्मेदारी पूरी ना कर ली जाए बल्कि हर बच्चे को उसकी मातृभाषा में शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार मिले।
सरकार और समाज के नीति निर्धारकों को बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए इस दिशा में परिणामदायक प्रभावी प्रयास करना चाहिए।
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