बढ़ती किताबे, झुकते कंधे और ख़ाली होती जेबें
- फ़ैज़ मोहम्मद कुरैशी
हाल ही में मैं अपनी आठ वर्षीय बेटी के नए शैक्षणिक सत्र के लिए कोर्स लेने गया l वो भोपाल के एक निजी स्कूल में पढ़ती है l कोर्स में 15 पुस्तकें और 13 कॉपियां थीं. इनका वज़न था 9 किलो और मैंने चार हज़ार पाँच सौ रूपये खर्च किए. मैंने कई निजी स्कूलों के कोर्स के बारे में जानना चाहा तो मुझे पता चला कि कक्षा 1 से 8 के बच्चों के लिए 5 से 16 अनिवार्य पाठ्यपुस्तकें और 6 से 20 कॉपियां हैं और इनकी कीमत ढ़ाई हज़ार से दस हज़ार रूपये है. इसके इतर शासकीय विद्यालयों में प्रतिविषय1 ही पुस्तक है कुछ निजी विद्यालयों के शिक्षक जो मेरे मित्र हैं बताते हैं कि प्रत्येक कक्षा और प्रत्येक विषय की किसी विशेष पुस्तक लागू करने पर इन्हें व विद्यालय के संचालकों को प्रकाशकों से हज़ारों रूपये मिलते हैं. मैं दुखी और विस्मित दोनों ही था, क्योंकि मैंने तो सरकारी स्कूल से ही अपनी पूरी शिक्षा अर्जित की है और उसका खर्चा इससे 10 गुना कम तोथा ही शिक्षा भी अच्छी ही थीl कमोबेश यही स्थिति उन अधिकतरपालकोंकी भी होगी जिनके बच्चे निजी विद्यालयों में अच्छी शिक्षा की आस में पढ़ते होंगे.
इस बारे में कुछ महत्वपूर्ण बातें जो मस्तिष्क में उपजती हैं वो इस तरह हैं . पहली बात जुड़ी है, छात्रों पर पड़ने वाले मानसिक दबाव से. हमारी अपेक्षा होती है कि हमारा बच्चा स्कूल में बहुत सीखे, हर परीक्षा में अव्वल आए l कक्षा 1 से 8 तक के लिए ही हम उसे कम से कम 6 घंटे स्कूल भेजते हैं, फिर 2 घंटे ट्यूशन और घर लौटने के बाद उसे अपनी निगरानी में एक-डेढ़ घंटे पढ़ने बैठाते हैं. इसका मतलब हम ख़र्चे और अदेखे भविष्य के डर से 8-10 घंटे वही पाठ्यपुस्तकें घुटवाते हैं जो हमने स्कूलों के कहने पर खरीदी हैं. अब देखिए सरकारी स्कूलों के बच्चों को इनके पास हर विषय की एक ही किताब होती है. स्कूल की लाइब्रेरी में भी सीमित किताबे होती हैं और आज तक भी हमारे अधिकतर नौकरशाह सरकारी स्कूलों से ही पढ़े हुए मिलते हैं. तो मामला ये बनता है कि यदि छात्र 10 से 20 पुस्तकों से ही माध्यमिक शिक्षा के क़ाबिल बनते हैं तो हमारे सरकारी स्कूलों के बच्चों को क्यों क़ाबिल नहीं बनाया जा रहा या निजी स्कूल वाले प्रकाशकों के गठजोड़ से हमें निचोड़ने में लगे हुए हैं ?
इसी क्रम में दूसरी बात उपजती है निजी स्कूलों में अनिवार्य की गयी पाठ्यपुस्तकों की ख़रीदी या उपलब्धता की आपने देखा होगा निजी विद्यालयों द्वारा प्रिस्क्राईब किया जा रहा कोर्स किसी ख़ास दुकान से ही मिल रहा है औरअधिकतर पुस्तकें निजी प्रकाशकों की हैं. इनमे एनसीईआरटी यासीबीएसई की नाम मात्र की किताबें होती हैं जबकि एनसीईआरटी और सीबीएसई की किताबें इससे चार गुना सस्ती और कई गुना शैक्षिक रूप से बेहतर होती हैं. वैसे एनसीईआरटी शासकीय संस्थान होकर विगत चार दशकों से पूरे देश की पाठ्यचर्या, पाठ्यक्रम और पाठ्यपुस्तकें बनाने, शिक्षकोंके प्रशिक्षण आदि का काम करती रही हैlइस संस्थानमें भारत और शेष देशों के शिक्षाविद् इस काम को करते हैं. अब आप ही तय कीजिए क्या सिर्फ़ निजी प्रकाशक ही गुणवत्तापूर्ण शिक्षण सामग्री निर्मित कर सकते हैं या एनसीईआरटी, सीबीएसई वराज्यों के शिक्षा विभाग.
इससे सहज सवाल उपजता है कि फिर स्कूलों में निजी प्रकाशकों की पुस्तके उपयोग क्यों की जाती हैं? इसका जवाब तो नहीं पर आप जानकारी बढ़ा सकते हैं कि पिछले 2 वर्षों से लगातार सीबीएसई स्वयं और उससे सम्बद्ध सभी विद्यालयों को एनसीईआरटीकी शासकीय संस्था की पाठ्यपुस्तकें उपयोग करने के लिए आग्रह कर रही है. इसलिए वो लगातार आदेश भी जारी कर रही है.
तीसरी बात है सिलेबस और पाठ्यपुस्तकों की संख्याओं से शरीरपड़ने वाले वज़न और दिमाग़ पर होने वाले दबाव की l कक्षा 1 से 8 तक के बच्चे जो अधिकतम 5 से 13/14 साल के हीहोते हैं और इनके बस्ते का वज़न होता है 5-8 किलो. इस वज़न से मुक्ति के लिए वर्ष 1993 में ही यशपाल कमेटी ने कुछ सिफारिशें की थीं, वे सिफारिशें अब हवा हो चुकी हैं. आप कभी स्कूल से लौटते हुए बच्चों को अवलोकित कीजिए आप इनके झुके हुए कन्धे, आवाज़ में थकन महसूस कर पाएंगे ये तो था शरीर पर वज़न. दिमाग के वज़न को समझने के लिए कक्षाओं में चलते हैं कक्षाओं के अन्दर वे सोपानक्रमिक अवधारणाओं से जूझते हैं, यदि कोई अवधारणा उस समय स्पष्ट नहीं हो पाई तो उस पर आधारित नई अवधारणा बनना बहुत मुश्किल होगी और हम बच्चे को रटाने के उपक्रम में लग जाएंगे. उदाहरण के लिए यदि बच्चा अंग्रेज़ी भाषा में सहज नहीं होगा तो वो अंग्रेज़ी में लिखे गणित के इबारती सवाल कैसे करेगा. अब यदि किसी बच्चे को स्कूल की 6 घंटियों में 5 अलग-अलग पुस्तकें पढ़ना हैं और छटे महीने ये पुस्तकें बदल जानी हैं तो उसे ये पुस्तकें याने उनकी सामग्रीया अवधारणाएं कंठस्थ करने का तो दबाव होगा ही. शायद हम पढ़ाने के नाम पर बच्चों को रटने के लिए ही प्रेरित करते हैं और अंग्रेजी में कहते हैं “चलो अब लर्न करो”.
चौथी बात है छात्र और पाठ्यपुस्तकों के साथ चलती हैं कक्षागत प्रक्रियाएं और ये सब हम करते हैं किसी ख़ास कक्षा में अपेक्षित ज्ञान आर्जन के लिए. इस ज्ञानार्जन का हमें परीक्षा नाम की व्यवस्था से पता चलता है कि किस छात्र ने उस साल क्या-क्या अर्जित किया है. विडंबना यह है कि 3 घंटे की इस परीक्षा को इतना भारी और ख़राब बना दिया है कि छात्र इसे अपने जीवन-मरण का प्रश्न बना लेते हैं और कई बच्चे फेल होने की हताशा से अपना जीवन तक ख़तम कर लेते हैं.
इस दिशा में कक्षा 8 तक के लिए शिक्षा का अधिकार कानून में कई प्रावधान भी किए थे, जिसमें प्रमुख तौर पर किसी बच्चे को उस कक्षा में ना रोका जाना, उसका सतत और व्यापक मूल्यांकन करना, छात्र शिक्षक अनुपात शामिल है. कक्षा 9-10 के लिए प्रायोगिक तौर पर बोर्ड परीक्षा से जुड़े आदेश भी जारी व लागू किए गए. विडम्बना है की देश के शीर्षस्थ नौकरशाहों, राजनीतिज्ञों, समितियों, संगठनोंआदि ने इस कानून का उल्टा ही मतलब निकाला. इन्होने मान लिया कि पास-फ़ैल होने से ही शिक्षा की गुणवत्ता सुधर सकती है और ये कानून ख़राब है. ये भी नहीं समझ आया कि पूरा कानून शिक्षा की प्रक्रियाएं सुनिश्चित करने के बाद किसी छात्र को अगलीकक्षा में भेजने की बात करता है. इसमें कहीं नहीं लिखा कि छात्र को अपेक्षित शिक्षा ना दी जाए और उसे ऐसे ही अगली कक्षा में भेज दिया जाए.
सार रूप में कहना चाहता हूँ कि अच्छी शिक्षा के लिए अधिक से अधिक पाठ्यपुस्तकों की अनिवार्यता एक भ्रम है, पाठ्यपुस्तकों के साथ अच्छे शिक्षकीय प्रयासों की, घर-परिवार के सहयोग और विविध माध्यमों की ज़रूरतपड़ती है. यदि पाठ्यपुस्तकों से ही ज्ञानार्जन हो पाता तो कंप्यूटर के इस युग में फ्री इन्टरनेट चलाकर हम सब विद्वान् हो गए होते और मानव संसाधन विकास मंत्रालय आगामी सत्र से सिलेबस के भार को आधा करने की अनुशंसा ना करता l
( लेखक शिक्षा के क्षेत्र में विगत 15 वर्षों से कार्यरत l वर्तमान में अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन से जुड़े हैं )
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